Monday, February 26, 2018

बंजारा


यूँ ही रंग बिरंगे कमाते कमाते 
बेघर हो गए हैं घर आते जाते
घोंसला तो है पर ठिकाना नहीं 
अपने पराये हो गए हैं ठिकाना बनाते बनाते ।



समझते हैं बोली मेरी अब अनजान परिंदे भी 
खुद से अनजान हो गए हैं पहचान बनाते बनाते ।

सुना था जंजीरें टूटी थी सैनतालिस में गुलामी की,
फिर गुलाम हो गए हैं आजादी का जश्न मनाते मनाते ।

हुई सांझ, लौटे परिंदे अपनो के पास, थकान मिटाने को
हम भी शायद कभी लौटे घर प्यास अपनी भुझाने को ।

राह से किसी गुजरते हुए एक सौंधी सी महक आयी है
शायद किसी माँ ने अपने हाथों से अपनों के लिए रोटी पकाई है ।
परोसे जाएंगे हमे भी छपन भोग बड़ी सी थाल में, 
बैठे हैं हम भी उसी लम्हे की राह में ।

बंजारा हूँ आवारा सा, राही मैं अनजान राहों का ।

                                       -कुमार

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