Thursday, September 17, 2015

भोर


उठ मुसाफिर भोर हुई अब, क्यूँ हार मान बैठा है

माना की आवाज़ नहीं है, समय के पदचापों में
वक़्त के आगे बेबस होकर, राजों को भी रंक होते देखा है
उठ मुसाफिर भोर हुई अब, क्यूँ हार मान बैठा है

गवाह है इतिहास हमारा, ऐसी अनगिनत गाथाओं का
जिसने, वीरों को समय के पहिये में, घुंघरू बांधते देखा है,
उठ मुसाफिर भोर हुई अब, क्यूँ हार मान बैठा है

है दर्द भरा दिल में जो तेरे, अश्कों में बह आने दे
इन अश्कों की बारिश में, बंजर को उपवन होते देखा है


उठ मुसाफिर भोर हुई अब, क्यूँ हार मान बैठा है

-कुमार  

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