Wednesday, June 12, 2019

वो एक इंतज़ार की रात थी


रंगों में सुर्ख लाल थी
बारिश में भीगी बा-कमाल थी
वर्षों से लंबी उसकी माप थी
वो एक इंतज़ार की रात थी ।

इश्क़ की स्याही में डूबी
कलम वो बिलकुल पाक थी
मौन रहकर अमर हो गयी
एक अधूरी बात थी
वो एक इंतज़ार की रात थी ।


ख्वाइशें दबी थी जो मन में
आज मुकम्मल हो जाती
बस इतनी सी फ़रियाद थी
वो, इंतज़ार में बीती एक रात थी ।

निशब्द:

वो स्याह रात के अंधियारे में
दिल के सूने गलियारों में
स्नेह की ज्योत जलाने आयी थी।

दरवाजे पर दस्तक थी
चरमोत्कर्ष पर धड़कन थी
पंख लगे थे पैरों में
हलके हलके क़दमों से, सर झुकाये
तब वो अंदर आयी थी
फिर चुपके से बैठ निकट
मंद मंद मुस्काई थी ।


मैं बैठा रहा पशोपेश में
उलझी रही वो भी भँवर में
रात के उस आखिरी पहर में
नज़रों से नज़रें टकराई थीं
फिर न उसकी झुकी पलकें
न नज़रों ने मेरी आराम लिया

और वो रात ठहरी रही, यूँ ही
निशब्द: .........!!

-कुमार

एक परिंदे की गाथा



पंछियों का एक झुण्ड
उड़ परदेस से आया था
देख एक विशाल वृक्ष
बसेरा वहीं बनाया था ।

पौ फटते ही सब परिंदे
निकल जाते अपने अपने झुंडों में
था एक परिंदा मन मौजी
खोया रहता देर तक अपने हसीं सपनों में ।

थी एक बात राज़ की उसकी
एक शाख से उसे था प्यार
वो एक वृक्ष की शाखा थी,
वो था मन मौजी बड़ा अपार ।

न जाने कब ऋतु वसंत बीत गयी
और बीता उसका अप्रवास
जाना था वापस सुदूर देश में
पर मन यहीं था शाख के पास ।

जाने की घडी खड़ी थी निकट
सामान सब तैयार था
बस शाख से आखिरी बार
मिलने का उसका अरमान था ।

थी शाख भी लथपथ पसीने से
कांति रहती थी जिस ललाट पर
आज वहीं थकान थी
जी भर देखा परिंदे ने
उसे, एक आखिरी बार ।

एक पल को तो वो भी लिपट जाती
पर लोक लाज का मान किया
शाख थी वो विशाल वृक्ष की
पर तनिक भी न अभिमान किया ।

ठिठके थे कदम शाख के
परिंदा भी मौन रहा
जुबां जो न कह पायी
आँखों से वो बयाँ किया ।

वक़्त था अब बिछड़न का
परिंदों ने वृक्ष को अंतिम प्रणाम किया
भारी मन से शाख ने भी
परिंदे को विदा किया ।


दृष्टि से ओझल होने को था
उसने मुड़ कर अंतिम बार देखा था
और उस जाते हुए परिंदे ने बस इतना देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख हवा में ।


-कुमार

खुद को समझाते देखा है


भोर से भी पहले मने उसको
नींदों में उठते देखा है
हाँ मैंने उसको खुद को समझाते देखा है

हाथों को मैंने उसके
दो से चार होते देखा है,
सुबह सवेरे मैंने उसको
भिखरे बालों में घर से बहार जाते देखा है
हाँ मैंने उसको खुद को समझाते देखा है ।



श्रृंगार के नाम पर सिर्फ
होंठों पे मुस्कान लाते देखा है
बच्चों की खुशियों में उसको
होते निसार देखा है,
हाँ मैंने उसको खुद को समझाते देखा है ।

दिनभर दौड़ धूप कर सांझ को
थक कर चूर होते देखा है,
बहा पसीना मेहनत कर
पैसे चार लाते देखा है,
हाँ मैंने उसको खुद को समझाते देखा है 

-कुमार

मैं ज़िन्दगी खुली किताब हूँ







मैं ज़िन्दगी एक खुली किताब हूँ
या कह लो तुम्हारे अनसुलझे सवालों का जवाब हूँ

ज़िन्दगी की वीणा से निकला
एक अधूरा साज़ हूँ
मैं ज़िन्दगी एक खुली किताब हूँ

आँखों में छुपाये हूँ दरिया पानी का
फिर भी बुझती नहीं वो प्यासी आग हूँ
मैं ज़िन्दगी एक खुली किताब हूँ

पाले हैं जाने कितने तूफाँ दिल में
फिर भी लहरों से टूटी एक छोटी सी नाव हूँ
मैं ज़िन्दगी खुली किताब हूँ ।

-कुमार

मुलाक़ात ना हो ?









कुछ बहाना दो, बात तो हो
हलके मेरे, ज़ज्बात तो हों ।

एक कदम तुम बढ़ो, कुछ कदम में बढूं
कहीं इसी इंतज़ार में, बीती रात ना हो ।

है वक़्त का तकाज़ा यही
तुम ही कर दो ये पहल
कहीं इस जनम फिर, मुलाक़ात ना हो ।

Sunday, June 9, 2019

मन तो है




बेतरतीब सी जो भागती थी कलम
आज बगावत पर है
जुबां भी शिकायत पर है
काश लिख दूँ आज कोई ऐसी नज़्म
हो जाए अमर ये काठ की कलम 

मन तो है, तुझे समंदर सा लिखूँ
ज़ुल्फ़ों को तेरी घटाओं सा लिखूँ
आँखों को तेरी किताब सा लिखूँ
हंसी को तेरी बहार सा लिखूँ
होंठों को तेरे शराब सा लिखूँ
खुश्बू को तेरी गुलाब सा लिखूँ
आवाज़ को तेरी तराना सा लिखूँ
मन तो है ......!!

मन तो है, हर जनम तुझे अपना सा लिखूँ
नींद का हसीन सपना सा लिखूँ
सर्दियों में गरम चादर का मखमली एहसास सा लिखूँ
रातों में चाँदनी रात सा लिखूँ
नदियों में निर्मल गँगा सा लिखूँ
ऋतुओं में कोमल वसंत सा लिखूँ
मन तो है.......!!

-कुमार